शिव के पहले विवाह की कथा और सती की मृत्यु
प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में शिव और सती के विवाह की कथा महत्वपूर्ण स्थान रखती है। सती, प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं और उन्होंने शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। अंततः, शिव ने सती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया।
हालांकि, दक्ष शिव को आदर्श पति नहीं मानते थे और उनके प्रति अत्यंत कटु भाव रखते थे। उन्होंने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया लेकिन शिव को आमंत्रित नहीं किया। सती इस अपमान को सहन नहीं कर सकीं और यज्ञ के हवनकुंड में कूदकर अपनी जान दे दीं। शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने वीरभद्र को भेजकर दक्ष के यज्ञ को नष्ट करवा दिया। सती के वियोग में शिव ने अपना सब कुछ त्याग दिया और समाधि में लीन हो गए।
पार्वती का जन्म और उनकी परवरिश
सती के बलिदान के बाद, मां पार्वती ने हिमालय के राजा हिमावन और रानी मैना के घर जन्म लिया। पार्वती को बचपन से ही शिव के प्रति गहरा आकर्षण था और उन्होंने संकल्प लिया कि वे ही उनके पति बनेंगे। माता पार्वती का लालन-पालन एक राजकुमारी की तरह हुआ, लेकिन उनका मन सदैव शिव की भक्ति में लीन रहता था।
पार्वती का शिव के प्रति समर्पण और तपस्या
जब पार्वती विवाह योग्य हुईं, तो उनके माता-पिता ने उनके लिए योग्य वर की खोज शुरू की। हालांकि, पार्वती ने दृढ़ निश्चय किया कि वे केवल शिव से विवाह करेंगी। इस संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में कई वर्षों तक बिना अन्न-जल के तप किया। उनकी कठोर तपस्या से देवताओं को भी विस्मय हुआ।
नारद मुनि ने भगवान शिव को पार्वती की तपस्या के बारे में बताया। शिव ने पार्वती की भक्ति की परीक्षा लेने के लिए एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनसे शिव के बारे में आलोचनात्मक बातें कीं। लेकिन पार्वती ने दृढ़ता से उत्तर दिया कि वे किसी भी परिस्थिति में शिव को ही अपना पति चुनेंगी। उनकी अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें स्वीकार कर लिया।
शिव का पार्वती के प्रति आकर्षण और उनका विवाह
शिव को पार्वती की तपस्या और भक्ति ने प्रभावित किया और उन्होंने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का निर्णय लिया। नारद मुनि के कहने पर हिमालय और अन्य देवताओं ने इस शुभ अवसर पर भव्य विवाह समारोह की योजना बनाई। शिवजी बारात लेकर हिमालय पहुंचे, लेकिन उनकी बारात अत्यंत विचित्र थी – वे स्वयं भस्म लिपटे हुए थे, उनकी जटाओं में गंगा विराजमान थी, और बारात में भूत-प्रेत, नाग और गण थे।
राजा हिमावन और रानी मैना इस विचित्र बारात को देखकर भयभीत हो गए, लेकिन पार्वती ने उन्हें समझाया कि शिव ही सृष्टि के सच्चे रक्षक और आदर्श पति हैं। अंततः, अत्यंत भव्य और शुभ मुहूर्त में शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हुआ। इस विवाह को सृष्टि के सबसे पवित्र विवाहों में से एक माना जाता है।
विवाह के बाद शिव और पार्वती के जीवन का वर्णन
शिव और पार्वती के विवाह के बाद, वे कैलाश पर्वत पर रहने लगे। पार्वती ने शिव के साथ आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों स्तरों पर संतुलित जीवन व्यतीत किया। उनका जीवन आदर्श गृहस्थ जीवन का प्रतीक बना। दोनों ने गणेश और कार्तिकेय को जन्म दिया, जो आगे चलकर देवताओं के प्रमुख योद्धा बने।
पार्वती ने कई रूप धारण किए – कभी अन्नपूर्णा बनकर शिव को भोजन करवाया, कभी दुर्गा बनकर दैत्यों का नाश किया, और कभी काली बनकर अधर्म का संहार किया। शिव और पार्वती का संबंध केवल पति-पत्नी का नहीं, बल्कि एक संपूर्ण सृष्टि की शक्ति और शिवत्व का प्रतीक बन गया।
इस कथा के पीछे के प्रतीकवाद और धार्मिक महत्व का विश्लेषण
शिव और पार्वती की कथा केवल एक दैवीय प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस कथा में कई प्रतीक छिपे हुए हैं:
- तपस्या और समर्पण: पार्वती की कठोर तपस्या यह दर्शाती है कि सच्चे प्रेम और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समर्पण और कठिन परिश्रम आवश्यक है।
- त्याग और धैर्य: शिव और सती की कथा यह सिखाती है कि सच्चे प्रेम में त्याग और धैर्य महत्वपूर्ण होते हैं।
- संतुलित जीवन: शिव और पार्वती का गृहस्थ जीवन यह दर्शाता है कि आध्यात्मिकता और सांसारिक जीवन में संतुलन बनाना आवश्यक है।
- प्राकृतिक शक्तियों का संगम: शिव और पार्वती का मिलन प्रकृति और शिवत्व के बीच संतुलन का प्रतीक है।
शिव और पार्वती का विवाह केवल एक पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि यह जीवन के विभिन्न पहलुओं का प्रतिबिंब भी है। यह प्रेम, भक्ति, त्याग और संतुलन की महत्ता को दर्शाता है। हिन्दू धर्म में इस विवाह को अत्यंत शुभ माना जाता है और इसका उत्सव महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस कथा से हमें धैर्य, प्रेम और आध्यात्मिकता का संदेश मिलता है, जो हमारे जीवन को और अधिक सार्थक बनाता है।