भारतीय महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में कॉर्नेलिया सोराबजी का नाम अत्यधिक महत्व रखता है। उन्होंने न केवल अपने अदम्य साहस और जज़्बे से कानून की दुनिया में महिलाओं के लिए एक रास्ता तैयार किया, बल्कि भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को भी एक दिशा दी। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, जब महिलाओं को न केवल भारतीय समाज में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी सीमित अधिकार प्राप्त थे, उस समय कॉर्नेलिया सोराबजी ने कानून के क्षेत्र में अपना स्थान बनाकर एक मिसाल कायम की।
Indian First Woman Lawyer सोराबजी जीवनी (Cornelia Sorabji Biography)
इस आर्टिकल के माध्यम से हम विस्तारपूर्वक जानेंगे कि कैसे एक साधारण लड़की, जो नासिक जैसे छोटे शहर से थी, भारत की पहली महिला वकील बनीं और उन्होंने अपने जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए, महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
प्रारंभिक जीवन: नासिक से ऑक्सफ़ोर्ड तक की यात्रा
कॉर्नेलिया सोराबजी का जन्म 15 नवंबर 1866 को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। उनके पिता रेवेरेंड सोराबजी कारसेदजी एक प्रसिद्ध ईसाई मिशनरी थे और उनकी मां फ्रांसिना फोर्ड ने पुणे में लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की थी। कॉर्नेलिया के माता-पिता पारसी धर्म से थे, लेकिन उन्होंने बाद में ईसाई धर्म अपना लिया था। कॉर्नेलिया की मां महिलाओं के अधिकारों के प्रति काफी जागरूक थीं और उन्होंने अपने जीवन को महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों के प्रति समर्पित किया।
कॉर्नेलिया सोराबजी ने अपने बचपन में अपनी मां को समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव के खिलाफ लड़ते देखा। उनकी मां अक्सर महिलाओं की कानूनी और सामाजिक समस्याओं को सुनतीं और उनकी मदद करतीं। इस सामाजिक परिवेश का गहरा प्रभाव कॉर्नेलिया पर पड़ा और उन्होंने तभी तय कर लिया कि वे अपने जीवन को महिलाओं के अधिकारों के प्रति समर्पित करेंगी।
शिक्षा: समाजिक बाधाओं के बीच रास्ता तलाशना
कॉर्नेलिया सोराबजी की शिक्षा का सफर आसान नहीं था। उनके पिता ने उन्हें और उनकी बहन को अपने मिशनरी स्कूल में पढ़ाया, लेकिन जब आगे की पढ़ाई का सवाल आया, तो उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उस समय, महिलाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। बॉम्बे यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए उन्हें मना कर दिया गया था, क्योंकि विश्वविद्यालय ने अब तक किसी भी महिला को प्रवेश नहीं दिया था। लेकिन कॉर्नेलिया के पिता ने हार नहीं मानी और काफी संघर्षों के बाद, उन्हें बॉम्बे यूनिवर्सिटी में प्रवेश मिला।
कॉर्नेलिया सोराबजी ने न केवल यूनिवर्सिटी में प्रवेश प्राप्त किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में टॉप भी किया। इसके बाद, उन्होंने इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना देखा। लेकिन यहां भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा। हालांकि उन्होंने परीक्षा में टॉप किया था, फिर भी उन्हें छात्रवृत्ति नहीं मिली, क्योंकि वे एक महिला थीं। यह मामला हाउस ऑफ कॉमन्स तक पहुंचा, लेकिन कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं निकला।
ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ाई: भेदभाव का सामना और सफलता की ओर कदम
कॉर्नेलिया सोराबजी ने इंग्लैंड जाकर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। वे वहां कानून की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन यूनिवर्सिटी ने उन्हें कानून पढ़ने की अनुमति देने से मना कर दिया और केवल अंग्रेजी साहित्य पढ़ने की इजाजत दी। इस समय बेंजामिन जोवेट ने उनकी मदद की और उनके लिए एक विशेष कानून कोर्स तैयार करवाया, जिससे कॉर्नेलिया सोराबजी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला बनीं।
पढ़ाई के बाद, जब परीक्षा देने की बारी आई, तो उन्हें एक और चुनौती का सामना करना पड़ा। उन्हें पुरुषों के साथ बैठकर परीक्षा देने की अनुमति नहीं दी गई। लेकिन कॉर्नेलिया ने हार नहीं मानी और इसके खिलाफ अपील की। उनकी अपील सफल रही और परीक्षा से कुछ घंटे पहले उन्हें परीक्षा देने की अनुमति मिल गई। इस तरह वे ब्रिटेन में बैचलर ऑफ सिविल लॉ की परीक्षा देने वाली पहली महिला बनीं।
हालांकि, उन्हें डिग्री प्राप्त करने में 30 साल का इंतजार करना पड़ा, क्योंकि उस समय महिलाओं को डिग्री प्रदान नहीं की जाती थी। लेकिन उनकी ये सफलता केवल व्यक्तिगत नहीं थी, यह उस समय की महिलाओं के लिए एक बड़ी जीत थी।
भारत में संघर्ष: महिला अधिकारों की लड़ाई
ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़ाई पूरी करने के बाद, 1894 में कॉर्नेलिया सोराबजी भारत लौटीं। उन्होंने अपनी शिक्षा के बल पर महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए काम करने का निश्चय किया। लेकिन भारत में भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा। उस समय, ब्रिटिश भारत के चीफ़ जस्टिस ऑफ़ बॉम्बे के आदेश के तहत किसी भी महिला को कानून के क्षेत्र में काम करने की अनुमति नहीं थी। इस निर्णय के कारण, कॉर्नेलिया सोराबजी का बतौर सॉलिसिटर काम करने का सपना टूट गया।
इसके बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी और भारत में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी। उस समय, भारतीय समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन था, जिसके तहत महिलाएं न केवल घरों से बाहर निकलने में असमर्थ थीं, बल्कि वे पुरुषों से बात करने तक की अनुमति नहीं रखती थीं। इस स्थिति में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने में भी असमर्थ थीं।
कॉर्नेलिया सोराबजी ने इन महिलाओं के लिए न्याय की लड़ाई लड़ी और उन्हें कानूनी सलाह दी। उन्होंने महिलाओं को संपत्ति से जुड़े मामलों में मदद की और कई बार खुद जासूस बनकर उनके मामलों की जानकारी जुटाई। इस दौरान, उन्होंने करीब 600 से अधिक महिलाओं को न्याय दिलाया और उनके अधिकारों की रक्षा की।
ब्रिटेन की कानूनी लड़ाई: महिला अधिकारों के लिए बड़ा कदम
1919 में, कॉर्नेलिया सोराबजी और उनके जैसे अन्य महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज़ों का असर हुआ और ब्रिटेन ने अपने कानून में बदलाव करते हुए महिलाओं को कानून के क्षेत्र में आने की अनुमति दी। यह निर्णय ऐतिहासिक था, क्योंकि इसके बाद महिलाएं वकील और जज बन सकीं।
कॉर्नेलिया सोराबजी, जिन्होंने पहले ही कानून की पढ़ाई पूरी कर ली थी, इस बदलाव के साथ ही भारत की पहली महिला वकील बन गईं। उन्होंने कोलकाता में 1929 तक वकालत की और महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करना जारी रखा। हालांकि उन्हें इस दौरान भी भेदभाव का सामना करना पड़ा।
चुनौतियों का सामना: एक महिला वकील के संघर्ष
कॉर्नेलिया सोराबजी का वकालत का सफर आसान नहीं था। एक बार, एक जज ने उन्हें यह कहकर अपमानित किया कि “आप अंग्रेज़ी बहुत अच्छे से जानती हैं, लेकिन इसके अलावा आप कुछ नहीं जानतीं।” ऐसे शब्दों और तानों ने उन्हें कभी तोड़ा नहीं, बल्कि हर बार उन्हें और मजबूत बनाया।
महिला अधिकारों के लिए समर्पित जीवन
कॉर्नेलिया सोराबजी का जीवन पूरी तरह से महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई के लिए समर्पित था। उन्होंने न केवल भारत में, बल्कि इंग्लैंड में भी महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। वे भारत की पहली महिला वकील होने के साथ-साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं, जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया।
कॉर्नेलिया सोराबजी की विरासत
कॉर्नेलिया सोराबजी का जीवन केवल एक महिला की सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि यह उन हजारों महिलाओं की कहानी है, जिन्होंने उनके साहस और संघर्ष से प्रेरणा ली। उनके संघर्ष और उपलब्धियों ने भारतीय महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक क्रांति की नींव रखी।
उनकी विरासत आज भी हमें प्रेरित करती है और याद दिलाती है कि अगर एक महिला ठान ले, तो वह किसी भी सामाजिक बाधा को पार कर सकती है। उन्होंने न केवल भारतीय महिलाओं को कानून के क्षेत्र में अपनी जगह बनाने का रास्ता दिखाया, बल्कि सामाजिक और कानूनी सुधारों की भी नींव रखी।
निष्कर्ष
कॉर्नेलिया सोराबजी का जीवन हमें यह सिखाता है कि संघर्ष और साहस से कोई भी बाधा पार की जा सकती है। भारत की पहली महिला वकील होने के नाते, उन्होंने न केवल भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ी, बल्कि उन्होंने वैश्विक स्तर पर भी महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। उनकी विरासत हमें यह प्रेरणा देती है कि सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता।
आज हम जो स्वतंत्रता और अधिकार महिलाओं के लिए देखते हैं, वे कॉर्नेलिया सोराबजी जैसी महिलाओं की मेहनत और संघर्ष का परिणाम हैं। उनके जीवन और उनके कार्यों को याद रखना हमारे लिए आवश्यक है, ताकि हम भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित कर सकें और समाज में महिलाओं के लिए और भी बेहतर अवसरों का निर्माण कर सकें।